होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है! होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था! वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है... रंगो का उत्सव... न केवल आम जीवन में बल्कि इस उत्सव का महत्व रामायण व महाभारत काल से ही रहा है! मिथिलांचल में तो होली का खास महत्व है.. वसंत के आगमन के साथ ही होली की रंगत छा जाती है.. डफली की तान पर परंपरागत फाग गीत व जोगीरा के शोर परवान चढ़ने लगते हैं... जोगीरा सा रा रा..! दशरथ के लाल खेले होली..! अवध में होली खेले रघुवीरा..! कान्हा गोपियों के संग खेले होली..! डफली की थाप पर इन परंपरागत गीत एक माह पहले से ही गांवों में होली के दस्तक का आभास करा देती है ! विभिन्न रंग बिरंगे वेशभूषा में डफली बजाते लोगों की टोली घर घर घूम कर फाग गीतों के माध्यम से होली पर्व का अहसास कराते है... लेकिन धीरे-धीरे जोगीरा के शोर थमने लगे है.. फाग गीत भी सिर्फ ग्रामीण इलाकों में ही सुनने को मिलते है ! जोगीरा सा रा. रा.. होते ही फाग का एहसास होने लगता है! शहर में होली अब मदहोशीं हुड़दंग, अल्हड़पन, मस्ती व अश्लील गीतों तक सीमट कर रह गया है ! होली के नाम पर छक कर पीना व अश्लील गीतों की धून पर थिरकना ही होली की नई परंपरा बन गई है! फाग गीतों का अपना एक अलग इतिहास रहा है! मिथिलांचल की संस्कृति का एक खास हिस्सा फाग गीत भी रहा है ! कबीर दास हो या सूर दास या फिर राष्ट्रकवि दिनकर.. सभी अपनी रचनाओं में फाग गीत को जगह दी है ! देश के विभिन्न इलाकों में फाग गीत को अलग अलग नामों से जाना जाता है ... लेकिन मिथिलांचल में इसे फगुआ गीत के नाम से जाना जाता है.. हालांकि लोग इसे जोगीरा के नाम से ज्यादा सुनते, देखते, बोलते व बताते है.. जोगीरा के शब्दों को जोड़ तोड़ कर वाक्य बनाया जाता है ! इसमें हास्य व व्यंग्य का मिश्रण रहता है.. आम तौर पर बोले जाने वाले शब्द हो या फिर बतकही, लोग इसे अपने अंदाज में बयां कर लोगों का मनोरंजन करते रहे है ! जोगीरा के स्वर में डंफ की बात का भी विशेष महत्व है.. लोग बताते है कि डंप बजाने से ठंड समाप्त होती है.. बसंत पंचमी के दिन से ही जोगीरा के सूर व डंफ की ताल सुनाई देने लगती है! शहरी इलाकों में तो इसका वजूद ही समाप्त हो गया है, गांवों में अब भी जोगीरा के गूंज सुनाई पड़ती है !!